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कहानी

जाग तुझको दूर जाना...

विपिन कुमार शर्मा


दिन भर की थकान, भूख-प्यास, बास की घुड़की और एक क्लर्क के जीवन का संताप - सब कुछ भूलता जा रहा हूँ मैं। मुझमें एक बच्चे जैसी स्फ़ूर्ति और पुलक एकबारगी ही समा गई है। सारी थकान और तकलीफ ऐसे हवा हो गई है जैसे तेज आँधी में कोई तिनका उड़ जाता है।

कारण बताने की मुझे फुर्सत भी कहाँ है! वो देखिए, दो बरस की मेरी प्यारी बिटिया ने मुझे देख लिया है। इस वक्त दरवाजे पर खड़ी होकर वह मेरी ही प्रतीक्षा किया करती है। अब दौड़ पड़ी है वहीं से। नंगे पाँव ही। उसके छौने-छौने पाँवों को उठता-गिरता देख रहा हूँ। मेरी बिटिया के नाजुक पाँव और यह पथरीली सड़क! मेरा मन चीत्कार कर उठता है। मैं भी पड़ता हूँ दौड़! अब वह मेरे पाँवों से लिपट-सी गई है। हाँफती-काँपती उस नन्हीं-सी जान को मैंने अब गोद में उठा लिया है। हाय री मेरी लाड़ो! कैसी फूल-सी कोमल और सुंदर हो तुम! रोम-रोम में ईश्वर समा गया उसके स्पर्श से।

ओहो! तुमने तो पापा के दोनों गालों पर मिट्ठी भी दे दिए? बिना माँगे ही! हाय, मैं तुम्हें कितना प्यार करूँ, क्या दे दूँ!

अब मैं अपनी लाड़ली को दो टाफी दे रहा हूँ जो एक रुपये में खरीदकर लाया हूँ। हजार परेशानियों में भी यह लाना मैं नहीं भूल सकता। वह इसी में बहुत खुश है। उसे नहीं चाहिए हीरे-मोती!

मैं उसे कंधे पर बिठाए-बिठाए घर के अंदर ले आया हूँ। मेरी पत्नी हमेशा ही मुस्करा दिया करती है मेरी ऐसी हरकतों पर। बहरहाल, वह मुस्करा रही है...

मैं अपने में मगन, बिटिया को लिए-दिए बिस्तर पर पड़ जाता हूँ। बिटिया मेरी छाती पर सवार होकर धमाधम कूद रही है - ''ऐ घोड़े, उठ जा, चल दौड़ मेरे घोड़े।"

मैं आनन-फानन में घोड़ा बन जाता हूँ। मेरी लाड़ो मुझ पर सवारी गाँठने में एक पल भी नहीं गँवाती। पत्नी चाय तैयार करने रसोई में गई है और मैं अपनी फूल-सी जान को पीठ पर बिठाए चेतक की भाँति कुलाँचें भर रहा हूँ।

सच में, अब तो थक गया मैं। लेकिन मेरी बिटिया रानी कहाँ थकने वाली! फिर से बिस्तर पर लेट गया हूँ और दोनों टाँगों पर उसे लादकर नई भीत उठा रहा हूँ, पुरानी भीत गिरा रहा हूँ...

अब चाय आ गई है। खेल बंद। बिटिया को समझाता हूँ, मनाता हूँ और उठकर हाथ-मुँह धोने चल पड़ता हूँ। जाते-जाते इतना बताता चलूँ कि इस खेल में हम दोनों नहीं, हम तीनों शामिल थे। हमेशा की तरह।

मेरी बिटिया चार बरस की होने जा रही है। कब इतनी बड़ी हो गई यह पता ही नहीं चला। पत्नी पर उसे पढ़ाने की धुन सवार रहती है। जब देखो तब एक ही सपने - ''हम अपनी लोरी को यह बनाएँगे, वह बनाएँगे।" इसी उम्र में उसे न जाने कितना कुछ रटा रखा है। उसका सपना इतने पर ही नहीं थमता। कभी टीवी पर कत्थक नृत्य का प्रोग्राम आ रहा हो तो मुझे खींचकर टीवी के सामने ले आती है और बार-बार पूछती है - ''अपनी लोरी भी इसी तरह डांस करेगी तो कितना अच्छा लगेगा न?"

बेटी एक और सपने हजार। इस संसार की सारी बुलंदियों पर वह अपनी बेटी को ही देखना चाहती है।

ऐसा नहीं है कि मैं नहीं चाहता। मैं भी तो यही सब चाहता हूँ और खूब चाहता हूँ। लेकिन कहते ही नहीं, सोचते भी डरता हूँ। लगता है, यह अपने मन से करे। जो भी करना चाहे। परंतु बच्चे का अपना मन कैसा? उसका मन तो ऊदी मिट्टी की तरह है। जैसा चाहो वैसा गढ़ दो। यही सोचकर मैं भी उसे किसी न किसी रूप में गढ़ने लगता हूँ।

पूछने पर लोरी भी अपने मम्मा-पापा को खुश करने के लिए सीखी-सिखाई बातें दुहरा देती है। असल में उसे तो अभी यह पता ही नहीं है कि 'बनना' होता क्या है, जिसके बारे में उसके मम्मी-पापा दिन-रात उससे पूछा करते हैं! कस्बे के ही एक स्कूल में वह तीन-चार घंटे के लिए जाती है और खेल-कूदकर आ जाती है।

इसी भाँति दो साल और गुजर गए। पटना में पुस्तक मेला लगा। हम लोग भी मेला देखने गए। सोचा कि लोरी अभी से ही किताबों की दुनिया को देख-समझ ले। यहाँ कस्बे में देखने को कितनी किताबें मिलतीं भला!

मेले में लोरी का खूब मन रम गया। तस्वीरों वाली कई किताबें उसे लेकर दिया। सबसे ज्यादा मजा आया बच्चों के कार्यक्रम में। कई स्कूलों के बच्चों के बीच नाचने-गाने और चित्र बनाने से लेकर लिखने-पढ़ने तक की प्रतियोगिताएँ हो रही थीं। उसके बाद पुरस्कार वितरण का समारोह हुआ। मुख्यमंत्री दुलार-दुलारकर बच्चों को पुरस्कार थमा रहे थे। 'किड्स पार्क' स्कूल के बच्चों ने सबसे ज्यादा पुरस्कार पाए। लोरी खूब तालियाँ बजाती रही। हम लोग हर बार लोरी का उत्साह बढ़ाते कि फलाँ स्कूल में तुम भी पढ़ना, तुम्हें भी ढेर सारे इनाम मिलेंगे।

इस पुस्तक मेले में जाने का सबसे अच्छा फल यही निकला कि लोरी भी पढ़ने और कुछ बनने को लालायित हो गई। यहाँ कस्बे के स्कूल में तो साधारण-सा माहौल था और साधारण-सा ही यूनिफार्म भी। पटना के बच्चे तो सूट-टाई में देवदूत जैसे लग रहे थे। अब लोरी रोज उसी स्कूल में जाने और सूट-टाई में पुरस्कार लेने के सपने देखने लगी। यहाँ तक कि पड़ोस के बच्चों के साथ वह खेल भी पुरस्कार देने-लेने का खेलने लगी।

हम पति-पत्नी तो चाहते ही थे कि हमारी बेटी खूब पढ़े और उसकी शुरुआत एक बेहतर स्कूल से ही मुमकिन थी।

दिन में तो लोरी पटना के स्कूल में जाने को तैयार हो जाती लेकिन रात में वह जाने की बात करते ही रोने लग जाती। उसके साथ-साथ हम दोनों भी रोने लगते। हमें खुद पर भी भरोसा नहीं था कि हम उसके बगैर रह सकेंगे। अपने कलेजे के टुकड़े को देह चीरकर खींच निकालना कुछ आसान नहीं था हमारे लिए भी। फिर लोरी तो हमारे बिना ज्यादा देर खेलने के लिए भी बाहर नहीं टिक सकती थी।

ये बहुत मजबूर दिन थे। हम तय नहीं कर पा रहे थे कि वास्तव में हम चाहते क्या हैं? जब लोरी के भविष्य की सोचते तो लगता उसे पटना के स्कूल में भेज देना चाहिए। किंतु जब सिर्फ लोरी की सोचते तो लगता इतनी नन्हीं-सी जान बाहर कैसे रहेगी! कैसे पत्थर रख लें अपनी छाती पर? अपने आँसू रोककर लोरी को खूब समझाते कि पटना के स्कूल में वह कितने मजे करेगी! लोरी सब कुछ पाना चाहती थी लेकिन अपने मम्मा-पापा के बिना कुछ भी उसे मंजूर नहीं था। हम तीनों एक-दूसरे को ढाँढ़स देते कि बहुत आसान होगा वहाँ हास्टल में रहना। कोई परेशानी नहीं होगी। हम लोग हर हफ्ते मिलने जाया करेंगे और जरा भी दिक्कत हुई तो वहाँ थोड़े ही छोड़ देंगे!

अपने को समझा-बुझाकर, हौसला देकर हम तीनों पटना के किड्स पार्क स्कूल पहुँचे। पुस्तक मेला में जबसे उस स्कूल के तेज-तर्रार बच्चों को मुख्यमंत्री से पुरस्कार पाते देखा था तभी से यह लगने लगा था कि हमारे सपने यह स्कूल ही सच कर सकता है। स्कूल में भी आकर बहुत अच्छा लगा। बड़ा-सा अहाता जिसमें पेड़-पौधे और फूल-पत्तियाँ ही नहीं, घास तक करीने से सजी हुई थी। बड़ा-सा खेल का मैदान, झूले और सबसे ज्यादा मनमोहक लगे वहाँ के चमकते-दमकते बच्चे। वैसे हमारी लोरी भी देखने में किसी से कम नहीं है, लेकिन वह रख-रखाव, बोलचाल में वह चुस्ती, अनुशासन और आकर्षक यूनिफार्म के अभाव में हम अपने आप से मुँह चुरा रहे थे। हम भी उसे स्कूल ड्रेस ही पहनाकर लाए थे लेकिन आसमानी शर्ट और नेवी ब्लू स्कर्ट में वह कुछ खास नहीं जम रही थी। कस्बे के स्कूल में तो यही सबसे प्यारी लड़की है, लेकिन यहाँ वह बात नहीं थी। सफेद शर्ट, लाल पैंट या स्कर्ट और लाल रंग की टाई में यहाँ के बच्चे खूब चमक रहे थे। लोरी के स्कूल में टाई का चलन नहीं था। टाई के अभाव में लोरी उन बच्चों के बीच गँवार जैसी लग रही थी। इस फर्क को सिर्फ हम दोनों ही नहीं, लोरी भी महसूस कर रही थी। इसलिए अपने स्वभाव के विपरीत वह बहुत चुप-चुप-सी थी। मेरे पैरों से लिपटी-लिपटी-सी चल रही थी। वैसे खुश भी दिख रही थी लोरी इस संपन्न स्कूल को देखकर।

प्रधानाध्यापक बहुत सम्मान और गर्मजोशी से मिले। उन्होंने हमारे निवेदन को बहुत विनम्रता से टाल दिया। एडमिशन का समय समाप्त हो चुका था, सारी जगहें भर चुकी थीं और सबसे बड़ी बात कि बिना टेस्ट लिए एडमिशन कतई नहीं हो सकता था।

मेरी पत्नी बहुत रुआँसी हो गई। अपने को कितना तो समझाकर हम तैयार कर पाए थे, बाद में पता नहीं यह हौसला कर भी पाएँगे कि नहीं! हमने यह बात प्रधानाध्यापक के आगे रखी। पत्नी ने लगभग रिरियाते हुए बताया कि हम कितनी उम्मीद से इस स्कूल में आए हैं। प्रधानाध्यापक देखने में ही बहुत दयालु और सहृदय लग रहे थे। उन्होंने आश्वासन दिया कि वे पूरी कोशिश करेंगे। आधे घंटे का समय माँगकर और हमें अपने केबिन में ही बैठा छोड़कर वे बाहर चले गए। थोड़ी देर बाद हम दोनों के लिए चाय और लोरी के लिए एक प्लेट में बिस्किट आ गई। अभी हम लोग चाय खत्म भी नहीं कर पाए थे कि वे लौट आए और बताया कि स्कूल के इतिहास में यह पहली घटना है जब समय खत्म होने के बाद और बिना टेस्ट के एडमिशन लिया जा रहा है। जरूर ही ईश्वर का इस एडमिशन के पीछे कोई खास मकसद है जो स्कूल का इतिहास बदला जा रहा है।

लेकिन अगले ही क्षण में हमारा दिल बैठ गया। हम जितने रुपये काफी समझ कर ले आए थे वे बहुत नाकाफी साबित हुए। उससे लगभग दस गुना ज्यादा रुपये एडमिशन में लगने थे। स्कूल के लिए किताबें-कापियाँ ही नहीं, स्कूल बैग और यूनिफार्म तक स्कूल से दिया जा रहा था। इन सबके जितने रुपये लिए जा रहे थे, बाहर उससे एक चौथाई भी नहीं लगते। मगर हम कहते भी क्या! सारे नियम ताक पर रखकर प्रधानाध्यापक ने हमारे लिए समय खत्म हो जाने पर भी एडमिशन के लिए रजामंदी दी थी। लेकिन रुपये होते हमारे पास तब तो देते!

प्रधानाध्यापक ने इसका भी समाधान निकाल दिया। उन्होंने कहा कि जितने रुपये अभी पास में हैं वे जमा कराके एडमिशन दिला दूँ और लोरी को आज से ही यहीं छोड़ जाऊँ। फिर अगले हफ्ते आकर बाकी के रुपये दे जाऊँ। इसी बहाने बेटी से भी मिलना हो जाएगा।

हमारी तो इच्छा थी कि एक हफ्ते के लिए लोरी को साथ ही ले जाते, खूब खिलाते-पिलाते, हफ्ताभर सीने से लगाए रखते और समझा-बुझाकर अगले हफ्ते ले आते। इसके लिए तो हम मानसिक रूप से तैयार होकर ही नहीं आए थे। मगर मजबूरी थी। बेटी को बंधक रखकर जाना था। हमारे असमंजस को शायद प्रधानाध्यापक समझ गए थे। उन्होंने तीन-चार बच्चियों को बुलवाया जो लगभग लोरी की ही उम्र की थीं। उन्होंने हमें आश्वस्त किया कि लोरी को जरा भी परेशानी नहीं होगी। हमने भी अपना मन मार लिया। यहाँ तो छोड़ना ही था, भले ही हफ्ते भर बाद, पर... आज ही सही।

प्रधानाध्यापक ने एक और बुद्धिमत्तापूर्ण बात बताई कि बच्चे के सामने ज्यादा नेह न दिखाएँ, बच्चे के लिए रहना मुश्किल हो जाएगा। उन लड़कियों के साथ लोरी को खेलने के लिए भेज दिया और हमें दरवाजे तक छोड़ने आ गए।

रास्ते भर हमें लोरी की चिंता लगी रही...। जाने कितनी देर खेलती रही होगी वह अपने नए दोस्तों के साथ। हो सकता है तुरंत ही भागकर आ गई हो! फिर हमें न पाकर क्या हाल हुआ होगा उसका? उसे बताकर भी तो नहीं आए थे। अपनी बेटी को धोखे में रखकर आ गए थे हम दोनों। अब पछता रहे थे कि बेकार ही प्रधानाध्यापक की बातों में आ गए। कम से कम बताकर और समझा-बुझाकर ही आना चाहिए था। ओह, बिना बताए आ गए! जाने क्या सोच रही होगी लोरी हमारे बारे में! लोरी की चिंता में पैसों की बात तो भूल ही गए थे हम। साठ हजार रुपये और। कहाँ से होगा इतने रुपयों का इंतजाम? फिर प्रत्येक महीने सात हजार रुपये। वेतन के बारह-तेरह हजार रुपयों में से सात हजार! किंतु हम संकल्पबद्ध थे। भूखे रह लेंगे, कोई और काम करेंगे लेकिन बिटिया को अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाएँगे। इतने खर्च के बावजूद यह गुमान था कि स्कूल का नियम तोड़कर हमारी बेटी का एडमिशन लिया गया। पत्नी भी रास्ते-भर इसी के लिए ईश्वर का आभार मानती आई।

किंतु यह गुमान ज्यादा दिन न बना रह सका, बल्कि अगले हफ्ते ही टूट गया। हम रुपये लेकर प्रधानाध्यापक के केबिन में पहुँचे तो वहाँ दो और बच्चों का एडमिशन लिया जा रहा था। यह देखकर हमें जोरदार सदमा लगा और इसे प्रधानाध्यापक ने महसूस भी कर लिया। वे हमें स्कूल घुमाने के बहाने बाहर ले आए और बताने लगे कि ये दोनों बहुत जरूरतमंद थे। एडमिशन लेना उनकी लाचारी थी।

हमें भी बाद में लगा कि ऐसा संभव है। लाचारी और उम्मीदें सिर्फ हमारी ही तो नहीं थीं। लोरी हमें देखते ही खुशी से रोने लगी। मैंने तो उसे क्लास में ही गोद में उठा लिया। शिक्षक मुझे मना करते रहे और मैं उसे गोद में लिए हुए बाहर आ गया। लोरी कुछ दुबली लग रही थी। पत्नी ने भी यही कहा लेकिन प्रधानाध्यापक कहने लगे कि यह केवल भ्रम है। सभी माँ-बाप को ऐसा ही लगता है। उन्होंने पूरे हफ्ते का मीनू थमा दिया कि किस दिन क्या खिलाया जाता है। खाने के आगे कैलोरी की मात्रा भी दी हुई थी। हम मीनू देखकर बहुत खुश हो गए। इतना अच्छा खाना तो हम घर में भी नहीं दे पाते थे। लेकिन मन इसी बात को लेकर कचोट रहा था कि लोरी बहुत उदास थी। आते वक्त वह भी साथ चलने को रोने लगी थी। दिन भर लोरी के साथ बिताकर और उसे खूब मनाकर शाम की बस से हम लौट आए थे। अब अगले हफ्ते फिर जाना था।

घर बिलकुल खाली और उदास लगता। सिर्फ घर ही नहीं, बिस्तर भी। हम दोनों के बीच लोरी की खाली जगह हमें खूब सालती। हम रोज अपने बीच लोरी का बिस्तर लगाते और रात भर लोरी की बातें करते हुए हँसते-रोते रहते।

अगले हफ्ते लोरी से मिलने गए तो वह कुछ खुश दिखी। वहाँ के वातावरण में उसका मन रमने लगा था। लोरी ने बताया कि क्लास में टेस्ट लिया गया था जिसमें उसने टाप किया है। मेरा दिल भर आया। वाह री मेरी बिटिया! अपने गरीब बाप की लाज रख ली तुमने। देख लिया न हेडमास्टर साहब, मेरी बिटिया का टेस्ट न लेकर मुझ पर कोई अहसान नहीं किया था। इतने तेज तर्रार बच्चों के बीच लोरी ने टाप किया है। हम तो खुशी से फूले जा रहे थे लेकिन क्षण भर में ही हमारी खुशियाँ आधी हो गईं। लोरी ने ही बताया कि कई बच्चे ऐसे हैं जिन्हें पूरी ए बी सी डी भी नहीं आती। गणित में तो और भी फिसड्डी हैं। दो और दो का जोड़ भी उन पर भारी पड़ता है। हमें समझ में नहीं आ रहा था कि जब सबका टेस्ट लेकर एडमिशन हुआ था तो ऐसे बच्चे कक्षा में आ कैसे गए? इनसे अच्छे छात्र तो अपने कस्बे के स्कूल में थे। लोरी देर तक हमें अपनी कापियाँ दिखाती रही जिसमें उसे कई रंग के स्टार मिले थे। प्रधानाध्यापक भी लोरी से बहुत खुश थे। प्यार से लोरी की दोनों चोटियाँ पकड़कर बोले - ''बहुत शरारती है आपकी बेटी। सबको नचाकर रख देती है। लेकिन बहुत प्यारी और समझदार भी है।"

लोरी के बाल बहुत लंबे हैं। पत्नी रोज दो बार उसकी चोटी करती थी। यहाँ कौन करता होगा? हमारा ध्यान पहली बार उसके खूबसूरत बालों की ओर गया। रूखे-रूखे-से और बेतरतीब थे। कपड़े भी मलिन-से! प्रधानाध्यापक ने हमारी दृष्टि भाँप ली। लोरी को थपथपाते हुए कहा - ''हमारे स्कूल में सभी को अपना काम खुद से करने को सिखाया जाता है। धीरे-धीरे सब सीख जाएगी।"

हम कुछ न बोल सके। इतनी छोटी बच्ची अपने सारे काम कैसे कर सकती है भला! कहाँ हम उसके तलवे के नीचे अपना दिल बिछाए चलते थे और कहाँ इसे अपने बाल सँवारने, चोटी करने से लेकर कपड़े तक धोने पड़ रहे हैं। हमें तो यही समझ में नहीं आ रहा था कि हमने इसे बेहतर भविष्य बनाने के लिए यहाँ भेजा है या वर्तमान को बदतर बनाने के लिए?

प्रधानाध्यापक ने लोरी को क्लास में भेज दिया। छात्रावास में रहने वाले बच्चों के लिए रविवार के दिन भी दो घंटे की पढ़ाई होती थी। यह उन्होंने अपने स्कूल की शान में बताया था लेकिन हमें यह भी अच्छा नहीं लगा था। रविवार को तो पूरे दिन की छुट्टी मिलनी ही चाहिए। हफ्ते में एक दिन भी चैन नहीं!

लोरी के क्लास में जाते ही प्रधानाध्यापक हमें समझाने लगे कि अगर जीवन में आगे बढ़ना है तो कठिन मेहनत और अनुशासन के सिवा और कोई विकल्प नहीं हो सकता।

''लेकिन कठिन मेहनत और अनुशासन इसी उम्र से कपड़े धोने और झाड़ू-पोंछा लगाने में जायज है? मेहनत तो पढ़ाई में करवाई जानी चाहिए।" - पत्नी बोले बिना न रह सकी। इस जवाब से प्रधानाध्यापक चिढ़ गए - ''आप सोच रही हैं हम खर्च बचाने के लिए बच्चों से काम करवाते हैं? काम करने की आदत तो इसी उम्र से डालनी चाहिए बच्चों में। जो छोटे काम नहीं कर सकता वह बड़े काम कैसे करेगा?"

हमने मान लिया के ये शायद ठीक कह रहे हैं। शाम की बस से हम लौट आए। लोरी को वहीं छोड़कर। इस बार भी लोरी साथ आने के लिए रोने लगी थी। मन ही मन हम दोनों घुट रहे थे। लोरी कित्ती छोटी-सी तो है! कैसे करती होगी ये सब काम! जब एक-डेढ़ साल की थी तो अपने से दुगुने लंबे झाड़ू उठाए-उठाए सफाई करती चलती थी। लेकिन वह तो खेल था उसका। आज जब सारे काम खुद करने पड़ते होंगे तो जाने कैसा लगता होगा! पत्नी ने एक अच्छा सुझाव दिया कि अगले रविवार को जाएँगे तो उसके बाल छोटे-छोटे कटवा देंगे। कम से कम एक काम से तो बचेगी बिचारी!

इस बार केवल एक ही बात अच्छी लगी थी - लोरी का अपने क्लास में टाप करना। कुछ भी हो, पढ़ तो रही है, जिसके लिए गई है वह। केवल इसी कारण से सिर पर पड़े कर्ज का बोझ भी हल्का लग रहा था।

लगभग तीन महीने गुजर गए थे। हम लोग प्रत्येक रविवार को जाते और लोरी के साथ दिन भर बिताकर शाम की बस से वापस आ जाते। लोरी को दिन भर समझाते रहते कि इस स्कूल में पढ़कर वह क्या-क्या बन सकेगी। वह इन बातों का मतलब भला क्या समझती, लेकिन हमारे सपनों को शायद कुछ-कुछ समझने लगी थी। वह हमें छोड़कर वहाँ इसलिए रह रही थी ताकि हम खुश रहें। इतनी छोटी-सी उम्र में ही हमने उस पर कितना भार डाल दिया था! क्यों चाह रहे थे हम अपनी बेटी से कुछ भी! अंदर ही अंदर हम दोनों अपराधबोध से गड़े रहते! कुछ समझ नहीं पाते, लोरी को पटना के छात्रावास में रखकर पढ़ाना कितना सही है! लेकिन यह कितना गलत है, यह भी नहीं समझ पाते। समझ तो यह भी नहीं पाते कि लोरी को इतने अच्छे स्कूल में पढ़ाकर हम खुश हैं या उदास! वहाँ लोरी का उदास रहना, वापसी के समय साथ आने की जिद करना और हमारे समझाने पर उसका समझ जाना - हर क्षण यह सब कुछ हमारी छाती में गड़ता रहता। हम जरा भी चैन नहीं ले पाते, न ही एक-दूसरे से आँखें मिला पाते।

लोरी की प्रशंसा सभी शिक्षक करते कि यह पढ़ने में बहुत होशियार है, बहुत जल्द ही सब सीख जाती है। वहाँ जाने पर लोरी के ही कारण प्रधानध्यापक भी सहृदयता से मिलते। इन्हीं बातों के सहारे हम अपने को बहला लिया करते थे।

अभी ठीक से तीन महीने भी पूरे नही हुए थे कि एक दिन दोपहर को प्रधानाध्यापक का फोन आया। वे बहुत गुस्से में लग रहे थे। मैं लाख पूछता रहा लेकिन उन्होंने बस इतना कहकर फोन पटक दिया कि अपनी बेटी को जल्द से जल्द यहाँ से ले जाइए, हम इसे एक दिन भी यहाँ नहीं रख सकते।

मैं समझ न सका, क्या हो गया! परसों तो जाना ही था, आज अचानक क्या बात हो गई? लोरी की तबीयत तो खराब नहीं हो गई? वैसे आज तक उसे किसी डाक्टर के पास नहीं ले जाना पड़ा था। फिर प्रधानाध्यापक ने बीमारी के बारे में तो कुछ बताया नहीं था। बीमारी होने से क्या वे इतना नाराज होते? मुझमें घर जाकर पत्नी को कुछ बताने का भी धैर्य न था। आफिस से निकलकर सीधे पटना के लिए बस पकड़ लिया और चार बजे तक स्कूल पहुँच गया।

स्कूल पहुँचकर सीधा प्रधानाध्यापक के पास गया। मुझे देखते ही आँखें तरेरकर उन्होंने पूछा - ''बेटी से मिल आए?"

''मैं तो सीधा आपके पास ही आ रहा हूँ।"

लग रहा था वे एक क्षण के लिए भी मुझे अपने कक्ष में देखना नहीं चाहते। बेल बजाने के बजाय जोर से दहाड़कर चपरासी को बुलाया और उसे डाँटकर बोले - ''इन्हें हास्टल में ले जाओ।"

''लेकिन बात क्या हुई है? कुछ पता तो चले..."

''खुद ही जाकर देख लें और वहीं से बेटी को घर ले जाएँ। यहाँ दुबारा आने की जरूरत नहीं है।"

प्रधानाध्यापक का व्यवहार मुझे बहुत ही अपमानजनक लग रहा था। इससे पहले तो बड़े सम्मान से मिलते थे। अपनी फटेहाली पर पहली बार ध्यान गया। स्कूल के चपरासी की भाँति दिख रहा था मैं। क्या कोई समृद्ध व्यक्ति होता तो वे उससे इस तरह बात कर सकते थे? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरे निकलते-निकलते में प्रधानाध्यापक ने बहुत खीझ भरी आवाज में कहा - ''केवल बच्चे पैदा कर देने से नहीं हो जाता। आप लोगों ने अब तक अपनी बच्ची को यह भी नहीं सिखाया कि पैंट में पाखाना नहीं करना चाहिए।"

''क्या? ऐसा किया उसने?" मैं दरवाजे तक पहुँच चुका था, पलटकर प्रधानाध्यापक के सामने आ गया - ''आज तक तो ऐसी गलती उसने नहीं की थी। अचानक ऐसा कैसे हो गया?"

''अचानक नहीं हुआ। दो दिन से सब भुगत रहे हैं उसको।"

''लेकिन यह हुआ क्यों? क्या पेट में कुछ गड़बड़ी थी?"

''कोई गड़बड़ी नहीं थी। वह बदमाशी कर रही है।"

लोरी डेढ़-दो साल की उम्र से ही पैंट में पेशाब-पाखाना नहीं करती थी। आज तक ऐसा भूल से भी नहीं किया था उसने। फिर अचानक ऐसा क्यों कर रही थी! मैं समझ नहीं पा रहा था। प्रधानाध्यापक ने बात खत्म कर मुझे दफा करने की गरज से कहा - ''मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता। आप स्वयं जाकर उससे पूछ लें।"

अपमान से तिलमिलाया हुआ मैं चपरासी के साथ हास्टल की ओर चला। फिर से अपने आपको देखा। चपरासी से कुछ ही बेहतर दिख रहा था मैं। स्कूल की बिल्डिंग के ऊपर के हिस्से में हास्टल था। एक कमरे में छह लड़कियाँ रहती थीं। शायद चार या पाँच कमरे थे। अभी लोरी के कमरे के दरवाजे पर ही पहुँचा था कि तीव्र बदबू महसूस हुई। बाहर तीन-चार लड़कियाँ अपनी-अपनी नाक को उँगली से दबाए आपस में खुसर-फुसर कर रही थीं।

अचानक मैंने खुद को अत्यधिक गुस्से में पाया। कमरे में झाँका तो लोरी दरवाजे की ओर पीठ किए एक कोने में सिर झुकाए खड़ी थी। कमरे में और कोई न था। किसी और का होना मुमकिन भी न था। बदबू के मारे सिर फटा जा रहा था। कोई और दिन होता तो उसे चुपके से जाकर गोद में उठा लेता, खूब प्यार करता, लेकिन उस वक्त मुझे जाने क्या हो गया था। तेज-तेज कदमों से लोरी के पास पहुँचा और खींचकर उसके गाल पर एक तमाचा जमा दिया। वह न लड़खड़ाई, न सँभलने का प्रयास किया। भद्द से जमीन पर गिर गई।

दरवाजे पर खड़ी लड़कियाँ अब कमरे में झाँक रही थीं। सभी उम्र में लोरी से बड़ी लग रही थीं। शायद ऊँची कक्षा की थीं। चपरासी खड़ा-खड़ा मेरा मुँह ताक रहा था।

लोरी के बेजान की तरह भद्द से गिरते ही मेरी चेतना वापस लौट आई। रोने की तो दूर, उसके सुबकने की आवाज भी नहीं आ रही थी। वह आँखें फाड़े लगातार मुझे देखे जा रही थी। उसे मालूम नहीं था कि मैं आ गया हूँ। वह मुझे ऐसे देख रही थी जैसे उसे विश्वास ही न हो रहा हो, कि मैंने उसे थप्पड़ मारा है। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि इतने ही दिनों में मेरी फूल-सी बेटी ऐसी पत्थर हो गई कि तमाचे लगने पर भी रोना नहीं आया। आज तक उसे तेज आवाज में डाँटा तक न था। न जाने कैसे मेरा हाथ आज उस पर उठ गया था!

अपने कलेजे को मैंने अपने तेज नाखूनों से खरोंच डाला था... अब दर्द तो होना ही था। लोरी को चोट लगी थी या नहीं यह तो भगवान जाने, लेकिन मुझे तो इत्ती जोर की लगी थी कि दर्द से बिलबिला उठा। बदबू का ध्यान भी न रहा। मेरी आँखों से लहू की धाराएँ फूट पड़ीं।

हाय री मेरी बच्ची! नीचे बैठकर मैंने लोरी को अपनी बाँहों में लपेट लिया। लोरी फिर भी चुप। मानो कुछ हुआ ही न हो। कहाँ खो गई थीं उसकी दुनिया भर की बातें! चपरासी से मैंने बाथरूम का रास्ता पूछा, फिर लोरी के ट्रंक से उसके कपड़े निकाले और उसे अपनी बाँहों में उठाए-उठाए बाथरूम ले आया। वह बहुत सकुचा रही थी, जबकि घर में उसे अक्सर मैं ही नहलाया करता था। पैरों तक गंदगी लिथड़ गई थी। खूब अच्छी तरह नहलाकर, साफ कपड़े पहनाकर उसे कमरे में बिठा दिया। दुबारा बाथरूम जाकर उसके गंदे-भीगे कपड़े साफ करके ले आया। शाम अच्छी तरह घिर आई थी। अब ज्यादा देर करता तो बस भी न मिलती। प्रधानाध्यापक से अनुमति तो लेनी थी नहीं। लोरी को गोद में ही उठाए-उठाए स्कूल कैंपस से बाहर निकल आया।

घर पहुँचा तो पत्नी बहुत घबड़ाई हुई मिलीं। बात भी घबड़ाने की थी। मैंने आफिस से लौटने में इतनी देर कभी न की थी। उसे यह मालूम भी कहाँ था कि मैं पटना गया हूँ। लोरी को देखते ही वह खुश भी हुई और हैरान भी। लोरी दौड़कर माँ के पैरों से लिपट गई और बहुत खामोशी से सुबकने लगी। उसे सुबकते देखकर अपना थप्पड़ मारना मुझे याद हो आया। जी में आया, अपना हाथ रेल के पहिए के नीचे रख दूँ। मैं क्या सजा दूँ खुद को? ऐसी फूल-सी कोमल और प्यारी बेटी पर मेरा हाथ उठ भी कैसे सका! वह भी तब जब उसे मेरे प्यार की सबसे ज्यादा जरूरत थी! सभी उसे फटकार रहे थे, दुत्कार रहे थे और ऐसे में मैंने भी चोट ही पहुँचा दिया उसको। मेरा वह व्यवहार क्या लोरी कभी भूल पाएगी?

मैंने आत्मग्लानि में भरकर उसे पुचकारते हुए जब गोद में उठाना चाहा तो वह कसकर माँ के पैरों से लिपट गई। मेरी ओर बस नजर उठाकर देखा। ओह! मेरे लिए उन आँखों को सह पाना नामुमकिन था। मैं नहीं कह सकता, क्या था उन आँखों में। बिल्कुल ही नहीं कह सकता। लेकिन वैसा कुछ नहीं था जो पहले हुआ करता था। लगा मेरी बेटी मुझसे खो गई है। नहीं, यह भी नहीं। लगा मेरी बेटी से उसका पिता खो गया है। इतनी छोटी-सी गुड़िया अपने पिता के बगैर कैसे रहेगी भला! मुझे तो चाहे किसी भी तरह से अपनी बेटी को उसका पिता लौटाना था। मैं उसका अपराधी था। अपनी पत्नी से नजरें चुराते हुए मैं किनारे पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया।

पत्नी मेरी खुश भी, हैरान भी। लोरी के बाल सहलाते हुए बड़े उतावलेपन से पूछा - ''लोरी को कहाँ से ले आए?"

''और कहाँ से लाऊँगा! बेटी के साथ कुछ दिन रहने का मन हुआ तो जाकर ले आया, बस। है न गुड़िया?"

लोरी का पूरा बदन मानो काँप उठा। कुछ ही देर पहले उसके होंठों पर एक झलक-सी दिखी थी मुस्कान की। अब पूरी तरह वह गायब थी। उसका फूल-सा चेहरा कुम्हला गया। उसे डर था, कहीं मैं सारी बातें बता न दूँ!

''इसकी पढ़ाई में हर्ज नहीं होगा?"

''ऐसा भी क्या हर्ज, मेरी बिटिया दो दिन में दो महीने की पढ़ाई पूरी कर सकती है।"

''और स्कूल के शिक्षक ऐसे रहने देंगे? तुम भी बच्चों का बिगाड़ करके लाड़ करते हो! सोमवार को स्कूल चली जाना बेटा, फिर डेढ़-दो महीने बाद तो छुट्टी होने ही वाली है।"

''नहीं।" हास्टल से घर पहुँचने तक में लोरी ने पहली बार कुछ कहा और सिर को भी इनकार में हिलाया।

''ऐसा नहीं करते बेटा।" पत्नी उसे समझाने लगी - ''देखो कितना बड़ा स्कूल है और सभी लोग वहाँ तुम्हें कितना प्यार करते हैं! जाओगी न?"

''नहीं।"

मैं एकटक लोरी को देख रहा था। उसने पहली बार की ही तरह धीरे से इनकार में सिर हिलाते हुए दाँत भींचकर 'नहीं' कहा था। पत्नी खीझ रही थी तभी मैंने बीच में हस्तक्षेप किया - ''बिटिया इतने दिनों बाद घर आई है, रास्ते की थकी है। कुछ खिलाओ-पिलाओ तो इसके मन का। अभी तो आई है और तुम वापस भेजने को परेशान हो!"

''हाँ-हाँ, बताओ लोरी, क्या खाओगी?"

लोरी वास्तव में बहुत थकी हुई और नींद से भरी हुई थी। जाने कब से वह ठीक से सो नहीं पाई होगी! खाने के तुरंत बाद ही वह माँ से लगकर सो गई। मैं भी उस रात जल्द ही सो गया। सोचा था, कभी अकेले में अवसर देखकर पत्नी को सारी बातें बता दूँगा।

रात के तीन-साढ़े तीन बजे होंगे। पत्नी की आवाज से मेरी आँख खुली। तब तक पत्नी ने कमरे की लाइट जला दी थी। मैं बहुत हद तक समझ चुका था कि बात क्या हुई है। बदबू पूरे कमरे को अपनी गुंजलक में कस चुकी थी। मैंने बहुत सहजता से कहा - ''कोई बात नहीं, अभी बच्ची ही तो है। चलो धुलवाकर ले आते हैं।"

लोरी सहमी-सी बैठी थी, बिल्कुल रोई-रोई-सी। मानो उससे बहुत बड़ा अपराध हो गया हो।

''चलो बेटा।" मैंने लोरी को अपनी गोद में उठा लिया। पत्नी पीछे से तौलिया-साबुन लिए आई। लोरी को धुलवा देने के बाद उस बिस्तर को भी हटाना पड़ा जिस पर लोरी अपनी माँ के साथ सोई हुई थी। लोरी बिल्कुल चुप-सी रही पूरे वक्त। सिर को नीचे झुकाए। पत्नी ने बार-बार खीझकर पूछा कि ''मुझे जगाया क्यों नहीं? मैं ले जाती बाथरूम में?" तो लोरी ने धीरे से मिनमिनाते हुए कहा - ''मुझे देख लेती तो।"

''क्या कहा? देख लेती? तुझे देखा नहीं है? तीन महीने बाहर रह गई तो मुझसे ही शर्म?"

फिर लोरी ने एक शब्द भी कुछ न कहा।

मैं भी चौंक उठा था। यह क्या बात हुई! क्यों उसे लग रहा है कि उसे हम बाथरूम में देख लेते? रात भर मैं इसी उधेड़बुन में रहा और रात बीत गई। लोरी को भी रात में जगना पड़ा था इसलिए सुबह देर तक सोती रही। मैंने सुबह जगने पर पत्नी को सारी बातें बता दी थीं कि क्यों लोरी को अचानक हास्टल जाकर लाना पड़ा था।

पत्नी को रात में देर तक जगना पड़ा था और देर तक कमरे और कपड़ों की सफाई करनी पड़ी थी। शायद इसीलिए वह प्रधानाध्यापक की बातों से सहमत थी कि यह जान-बूझकर बदमाशी कर रही है। लेकिन मैं इस बात से पूरी तरह असहमत था - ''भला क्यों करेगी ऐसी बदमाशी?"

''ताकि घर में रह सके, और क्या! स्कूल से जी भर गया होगा।"

''तो यह बता सकती थी। हम लोग इसे जबर्दस्ती तो वहाँ रखते नहीं!"

''हो सकता है इसे लगता हो कि मम्मी-पापा यहाँ से घर नहीं ले जाएँगे, इसीलिए यह रास्ता निकाला हो!"

''मैं नहीं मान सकता। फिर रात में इसने यह क्यों कहा कि बाथरूम में हम इसे देख लेते?"

''सब बहाना है। बचपन से ही तो यह कितनी बातें बनाना जानती है।"

''लेकिन झूठ तो नहीं बोलती!"

''तुम कुछ समझते क्यों नहीं? यह बड़ी हो रही है, स्कूल में नए बच्चों के साथ रहकर आई है, कुछ और सीखेगी कि नहीं?"

''चाहे जो हो, तुम इसे प्यार से समझाओ। इसकी बातें समझने का प्रयास करो, यह क्यों ऐसा कर रही है।"

लोरी जगी तो पहले की तरह चहकती हुई नहीं, बहुत चुप-चुप-सी आकर किचेन में खड़ी हो गई। मैं वहीं खड़ा चाय पी रहा था, पत्नी सब्जी बनाने में लगी थी। लोरी भले ही न चहकी हो लेकिन उसे देखकर हम चहक उठे - ''अरी वाह, लोरी जग गई!"

लोरी थोड़ी-सी खिली। मैंने कप नीचे रखकर गोद में उसे उठा लिया - ''बोलो बेटा, आज क्या खाना चाहती हो?"

अभी लोरी कुछ कहती तभी पीछे से पत्नी ने कहा - ''पहले बाथरूम चली जाओ, फिर ब्रश कर लेना।"

लोरी पल भर में बुझ-सी गई। चेहरा जैसे राख हो गया हो। मैंने जोरदार प्रतिवाद किया - ठीक है, जब जाना होगा जाएगी, आज स्कूल थोड़े ही जाना है। अभी तो लोरी पापा के संग खेलेगी।"

''देखो, तुम इसे बिगाड़ो मत।" पत्नी ने मुझे झिड़क दिया - ''जाओ लोरी, पहले बाथरूम चली जाओ।"

लोरी चुपचाप किचन से निकल गई। पत्नी ने मुझे देखकर नकली गुस्से से कहा - ''देखा, गई न? तुम तो उसे कभी सुधरने ही न दो। एक भी अच्छी आदत उसे सिखाई है कभी।"

''मैं कब चाहता हूँ कि वह कपड़े और बिस्तर गंदा करे। लेकिन उसे झिड़को मत, प्यार से समझाओ।"

''मुझे नहीं आता प्यार करना तुम्हारी तरह। बिना कड़ाई किए बच्चा कभी अच्छी आदतें सीखता है?"

''तो न सीखे।"

मैं अभी पत्नी से उलझने के मूड में नहीं था। तेजी से किचन से बाहर निकला। आफिस के लिए भी देर हो रही थी। बाहर निकलते ही लोरी पर निगाह गई। वह खिड़की के पास कान लगाए शायद हमारी बातें सुन रही थी। मैं विश्वास न कर सका। ऐसा तो लोरी ने कभी नहीं किया था। अपनी हैरानी छुपाते हुए मैंने पूछा - ''तुम अभी तक बाथरूम नहीं गई, शैतान?"

वह अचानक मुझे सामने पाकर घबड़ा गई। उसके पैर जमीन से चिपक गए, मानो वहीं गाड़ दिए गए हों। मुझे बातें करते देख पत्नी भी किचन से निकल आई और लोरी को देखकर झल्ला उठी - ''तुम यहीं हो अभी तक? मैंने क्या कहा था।"

लोरी बिना सिर उठाए, बिना कुछ बोले बाथरूम की ओर चली गई। कपड़े पहनकर आफिस के लिए जल्दी में निकलते-निकलते भी मैंने देख लिया था कि लोरी बाथरूम के दरवाजे पर खड़ी थी, अंदर नहीं गई थी। मैं अनदेखा करके निकल आया।

शाम में घर पहुँचा तो लोरी टीवी पर कोई कार्टून फिल्म देख रही थी। पहले की तरह मैंने उसको टाफी दिए तो वह खुश हो गई। उसके साथ कुछ देर बातें करके मैं बाहर आया और पत्नी से धीरे-से कहा - ''हमारी लोरी इतने ही दिनों में बहुत बदल गई है। अब पहले की तरह बातें नहीं करती।"

''सिर्फ बातें ही कम नहीं हुई हैं, पैंट में टायलेट भी करने लगी है।"

''रात की बात तुम अब तक मन में धरे बैठी हो?"

''रात की कौन कह रहा है? आज दोपहर फिर इसने वही किया।"

''अरे?" मुझे याद आ गया। सुबह में वह बाथरूम नहीं गई थी, दरवाजे पर ही खड़ी थी। लेकिन क्यों? मैंने पत्नी को यह नहीं बताया। उससे तो बस यही कहा कि ''अभी बच्ची है, हो सकता है अंदाजा न लगता हो!"

वह बिफर उठी - ''अच्छा! तुम तो और भी बच्चे हो जो तुम्हें इतना भी ध्यान नहीं कि ऐसा तो वह दो साल की उम्र में भी नहीं करती थी,"

मैं चाय की कहकर लोरी के पास कमरे में लौट आया। सोचा इसी से बात करके देखता हूँ। हो सकता है इस बदलाव का कुछ कारण पता चले। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करता रहा, फिर पुचकारकर पूछा - ''बेटा, तुमने मम्मी को दिन में परेशान क्यों कर दिया? ऐसा नहीं करना चाहिए न?"

लोरी हँसते-हँसते अचानक ही मुरझा गई। बिलकुल चुप लगा गई जबकि अभी-अभी खूब हँस-हँसकर बातें कर रही थी। मैंने थोड़ी देर दूसरी बातों में उसे लगाना चाहा लेकिन वह एक बार जो चुप हुई तो फिर चुप ही रही। मैंने ही फिर से कहा - ''बाथरूम जाना चाहिए न बेटा, तुमने कपड़े क्यों खराब कर दिए? तुम तो बहुत होशियार बिटिया हो न मेरी?"

वह सिर झुकाए चुपचाप बैठी रही। मैंने उसे अपनी गोद में बिठा लिया और उसके सिर को सहलाते हुए पूछा - ''क्यों नहीं गई थी बाथरूम बेटा?"

लोरी ने बहुत धीरे-से कहा - ''मम्मी झाँकती है।"

''क्या?" मैं चौंक पड़ा था उसके जवाब से, फिर भी अपने को सामान्य दिखाते हुए बोला - ''नहीं बेटा, तुम ऐसा क्यों सोचती हो? मम्मी नहीं झाँकतीं।"

''हाँ झाँकती है। आप भी झाँकते हो और मम्मी भी।"

इतना कहकर वह फूट-फूटकर रोने लगी। इसी बीच पत्नी चाय लेकर आ गई। लोरी को रोते देखकर उसे भी हैरानी हुई। लोरी तो आम तौर पर बचपन में भी नहीं रोती थी, अब क्यों रोएगी? और वह भी अपने पापा की गोद में बैठकर!

उसने टेबल पर चाय रख दी और लोरी को अपनी गोद में लेते हुए पूछा - ''क्यों रो रही है मेरी रानी बिटिया?"

''यह बाथरूम जाती है तो तुम झाँकती हो इसलिए..."

''क्या?" लोरी को आँखें फाड़कर देखते हुए तेज आवाज में पत्नी ने कहा - ''यह क्या उल्टी-सीधी बातें कर रही है?"

लोरी सिर नीचे गाड़े सुबक रही थी। मैंने हस्तक्षेप करना जरूरी समझा ताकि लोरी को यह न लगे कि मैं उसकी शिकायत कर रहा हूँ। मैंने धीरे-से कहा - ''यह आरोप थोड़े ही लगा रही है? इसे तो बस शक हुआ ऐसा।"

''मेरी बेटी एकदम बुद्धू है!" पत्नी उसके आँसू पोंछते हुए उसका गाल चूमने लगी। मैं रिमोट उठाकर चैनल बदलने लगा।

लोरी को आए दो हफ्ते हो गए थे लेकिन कुछ सुधार होता नहीं दिख रहा था। हम लोग उसे बाथरूम तक छोड़ भी आते तो वह एकाध मिनट में ही बाहर निकल आती। जैसे अंदर कोई भूत बैठा हो! फिर बाद में वही सब होता। पत्नी खीझते-चिल्लाते हुए सफाई करती और लोरी सिर झुकाए सहमी-सी बैठी रहती। बात सिर्फ सफाई और गंदगी की ही होती तब भी ठीक था। तकलीफदेह बात तो यह थी कि इसकी वजह से लोरी भी मानसिक तौर पर बहुत बदल गई थी, बल्कि टूट गई थी। जरा भी नहीं लगता कि यह वही लोरी है जो दिन भर धमाचौकड़ी मचाए रखती थी। समझदार इतनी थी कि कोई भी बात एक बार में ही समझ जाती थी।

हम लोग बहुत कोशिश करते थे कि लोरी पर कैसी भी स्थिति में गुस्सा न करें, लेकिन उसे गंदगी में लिथड़े देखकर गुस्सा आ ही जाता। बाद में उसकी भरपाई के लिए खूब प्यार करते मगर लोरी तक हमारा प्यार पहुँच ही नहीं पाता था। फूल-सी हमारी बिटिया आँखों के सामने ही दिन पर दिन मुरझाती जा रही थी और हमें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें!

पत्नी तो दिन भर में चार बार उसकी नजर उतारती, कि जाने किसकी नजर लग गई है! डाक्टर के पास गए तो उसने पेट के कीड़े मारने की दवा देकर चलता कर दिया। हार कर एक तांत्रिक की शरण में भी गया। कई दिनों तक उसके टोने-टोटके में उलझा रहा लेकिन कोई समाधान नहीं निकला।

एक महीने से कुछ अधिक ही दिन निकल गए थे। स्कूल से एक बार भी प्रधानाध्यापक का फोन नहीं आया था। औपचारिकतावश यह जानने के लिए भी नहीं कि लोरी अब कैसी है या वह कब तक वापस स्कूल आ सकेगी। पिछली मुलाकात में उनका व्यवहार ऐसा था कि हमारी तो हिम्मत ही नहीं हो रही थी फोन करने की। यह तो हमने बिलकुल तय ही कर लिया था कि अब लोरी को किसी भी कीमत पर हास्टल नहीं भेजेंगे।

पत्नी ने ही एक दिन बहुत जोर दिया कि प्रधानाध्यापक से मिल आऊँ। अब लोरी को वहाँ पढ़ाना तो था नहीं तो कुछ रुपये तो वापस होने चाहिए थे। तीन महीने में फीस मिलाकर अस्सी हजार रुपये लग गए थे। छह महीने की जमा ली गई फीस वापस न भी करें लेकिन एडमिशन के वक्त जो साठ हजार लिए थे उनमें से तो चालीस-पचास हजार वापस मिलना ही चाहिए था। इसके अलावा, प्रधानाध्यापक शायद लोरी की समस्या के बारे में कुछ बता सकें!

बहुत हिम्मत करके प्रधानाध्यापक से मिलने पहुँचा। पिछली बार की तरह इस बार भी मुझे देखते ही उनकी भवें चढ़ गई। स्वभाव बिल्कुल बदला हुआ लगा। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये वही हैं जो पहले बड़ी विनम्रता से मिलते थे। वे एक व्यापारी की भाँति लग रहे थे जो भली-भाँति जानता हो कि सामने वाला मेरे फायदे का नहीं रहा। या शायद उस वेश्या की तरह जो अपने सामने किसी दरिद्र को पल भर भी देखना नहीं चाहती।

वे तो मुझे खड़े-खड़े ही टरका देना चाहते थे लेकिन मैं आज ढीठ की तरह कुर्सी पर जम गया। ऐसे कैसे चला जाता! मेरी जान से भी प्यारी बेटी की जिंदगी का सवाल था और तिल-तिल मरकर कमाए हुए रुपयों का सवाल था। मैंने लोरी को दुबारा यहाँ न भेजने की मंशा स्पष्ट करते हुए रुपये वापस करने की बात की। वे ऐसे बिदक गए मानो मैंने कोई फूहड़-सी गाली दे दी हो। कुत्ते की तरह दुरदुराते हुए-से बोले - ''कहाँ से आए हैं, जंगल से? किस दुनिया में रहते हैं आप? एडमिशन और फीस की राशि भी कहीं वापस होती हैं?''

''अगर बच्चा पढ़ने से इनकार कर दे...''

मेरी बात काटते हुए वे चीखे - ''यह आपके बच्चे की समस्या है, मेरी नहीं। मैं आज भी उसे रखने को तैयार हूँ, फिर पैसे क्यों वापस करूँ?''

मैंने लगभग गिड़गिड़ाते हुए-से कहा - ''सर, मैं बहुत गरीब आदमी हूँ। कर्ज लेकर बेटी का यहाँ एडमिशन करवाया था। अगर उसमें से आधा रुपया भी लौटा दें तो बड़ी मेहरबानी समझूँगा आपकी...''

''हमारे यहाँ अमीर-गरीब का कोई भेदभाव नहीं है। रुपये वापसी का तो सवाल ही नहीं उठता। दुकान समझ लिया है क्या?''

मैं कोई जवाब नहीं दे सका, हालाँकि मन में बहुतेरे जवाब उठ रहे थे। कुछ देर तक चुपचाप बैठा रहा। वे मुझे बड़ी हिकारत से निहारते रहे। अंत में यहाँ से उठने में ही मुझे अपनी खैरियत लगी। उठते-उठते पूछा - ''सर, लोरी को हमेशा लगते रहता है कि कोई उसे देख रहा है। इसी वजह से वह बाथरूम भी नहीं जाना चाहती। ऐसा यहाँ हॉस्टल में रहने के बाद से हुआ है। आप कुछ बता सकते है, ऐसा क्यों लगने लगा है उसे?''

प्रधानाध्यापक हल्के-से मुस्कराए - ''अच्छा? ऐसा कहती है वो?''

''हाँ।''

उन्होंने मुझे इशारे से अपनी कुर्सी की तरफ आने को कहा। मैं उधर गया तो उन्होंने सामने पड़े कंप्यूटर को चालू कर दिया। मैं उनके पीछे की तरफ खड़ा था। वे मेरी तरफ सिर उठाकर देखते हुए बोले - ''आपकी बेटी बहुत शरारती थी। हर वक्त खेलने में लगी रहती थी। इतने बच्चों को सँभालना कोई हँसी-खेल तो है नहीं। इसीलिए मैंने हरेक कमरे में कैमरा लगा रखा है और यहीं बैठे-बैठे सब कुछ देखता रहता हूँ। देखिए स्क्रीन पर। इसे कहते हैं सर्वेलियंस कैमरा। आपकी बेटी जो भी करती, मैं उसे जाकर बताया करता था कि उसने क्या-क्या किया है! पहले तो वह बहुत हैरान हुई थी लेकिन बाद में मुझसे डरने लगी।''

प्रधानाध्यापक मेरी ओर देखकर मुस्करा रहे थे। मैं तो यह कल्पना करके ही सिहर उठा कि कोई मेरे कमरे में कैमरा लगा दे तो मुझे कैसा लगेगा!

प्रधानाध्यापक मेरी तरफ सिर उठाकर ठहाका लगाते हुए बोले - ''अरे साहब, आप क्यों घबरा रहे हैं? कैमरा भी कोई डरने की चीज है भला? आप तो अपनी बेटी से भी ज्यादा डरपोक लग रहे हैं?''

मैं सचमुच भयभीत हो गया था। शायद मेरे पैर काँप भी रहे थे। मैं धीरे-धीरे चलकर प्रधानाध्यापक के केबिन से निकल आया। उस वक्त तो बस यही चाह रहा था कि जल्दी से जल्दी घर पहुँचकर अपना सिर लोरी के कदमों में डाल दूँ। मैं क्षमा माँगना चाहता था अपनी बेटी से। उसे बड़ा बनाने के लिए कितने छोटे लोगों के बीच भेज दिया था! हमारे शिक्षक भी हमें डराते थे, लेकिन सामने आकर। भूत बनकर नहीं। हम अपने शिक्षक का डर उनके पीठ पीछे भी महसूस करते थे, लेकिन गलती करने पर। यह तो सचमुच बहुत खतरनाक बात है कि सोते-जगते हर वक्त हमें कैमरे में देखा जाए। अब एक बच्चा कैसे समझ सकता है कि उसे सिर्फ बैडरूम तक देखा जा रहा है, बाथरूम तक नहीं।

मुझे घर पहुँचने में थोड़ी देर हो गई थी। लोरी खाकर सो गई थी। पत्नी आँख फाड़े मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी। उसे जब मैंने सारी बातें बताईं तो वह भी बहुत निराश और चिंतित हो गई। हमें अपने रुपये के डूब जाने की चिंता भी थी, लेकिन सबसे ज्यादा चिंता तो थी लोरी की। उसके रूप में तो हमारे जीवन का सर्वस्व ही डूबता जा रहा था। पत्नी प्रधानाध्यापक को जी भर के कोस रही थी। उसके सिवा हम कर ही क्या सकते थे और उससे कुछ हो नहीं सकता था।

सुबह हमने लोरी को सारी बातें बताईं और समझाया कि अब उसे डरने की जरा भी जरूरत नहीं है। यहाँ कोई कैमरा नहीं है। लेकिन हम शायद यह बात उसे समझा नहीं पा रहे थे। वह हमें ऐसे अविश्वास से देखती रही जैसे हम उसे बहला रहे हों। कोई सुधार नहीं हो रहा था उसमें। बहुत निराश हो गए थे हम।

एक दिन मैंने अपनी समस्या अपने साहब को सुनाई। उन्होंने मनोचिकित्सक के पास ले जाने की सलाह दी। घर आकर मैंने पत्नी को यह बात बताई तो वह मेरे साहब को गालियाँ देने लगी कि वह क्या मेरी बेटी को पागल समझता है? थोड़ी बड़ी होते ही यह सब समझ जाएगी। यह क्या कोई बीमारी है?

मुझे भी लगा कि शायद यह ठीक कह रही है। फिर भी मैं मन ही मन मनोचिकित्सक के यहाँ जाने के बारे में सोचता रहता। लोरी का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य रोज-ब-रोज टूटता जा रहा था। डेढ़-दो महीने में ही वह दुबली हो गई थी। हमेशा दबी-दबी-सी रहती। अंत में पत्नी ने भी हार मान ली और खुद ही एक दिन कहा कि मनोचिकित्सक से दिखवा आऊँ।

लगभग तीन घंटे से मनोचिकित्सक के यहाँ नंबर लगाकर बैठा हूँ। ऐसे-ऐसे मरीज यहाँ पर बैठे है कि इन्हें देखकर जिंदगी से दहशत होने लगी है। लोरी का तो मुझसे भी बुरा हाल हो रहा है। ठीक अभी-अभी लोरी का नंबर आया है। कंपाउंडर ने लोरी को अकेले ही डॉक्टर के कक्ष में भेजने के लिए कहा है। मुझे बाद में बुलाया जाएगा।

मेरी नन्हीं बिटिया पापा की सारी बाते मान लेती है। वह मेरी ओर देखती हुई, घबराई हुई-सी डॉक्टर के कक्ष में गई है और मैं बाहर दरवाजे पर अपना सिर थामे हुए स्टूल पर बैठा हूँ।


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